रुपये को बाज़ार के हवाले छोड़ना ही समझदारी
राधिका पांडे, दैनिक जागरण, 29 अगस्त 2013.
* हड़बड़ाहट में नीतियों में फेरबदल करना व्यर्थ
* गिरावट रोकने के कदमों की वापसी ही विकल्परुपये की गिरावट रोकने के लिए पिछले कुछ दिनों में सरकार और रिजर्व बैंक ने कई कदम उठाए हैं। ये कदम गिरावट तो रोक नहीं पाए, उलटे अर्थव्यवस्था के बुनियादी कारकों जैसे आर्थिक विकास दर, निर्यात और घरेलू निवेश पर खासा प्रतिकूल प्रभाव अवश्य डाल गए। यदि हम पिछले कुछ वर्षो की आर्थिक विकास दर पर नजर डालें तो पाएंगे कि विकास दर धीमी गति से ही सही, बढ़ी है। हाल के कदमों से आर्थिक विकास दर में सुधार और बढ़ोतरी की संभावनाओं पर सवालिया निशान लग गए हैं।
रुपये की गिरावट को रोकने और विदेशी फंड को आकर्षित करने के लिए ब्याज दरें बढ़ाई गई हैं। ब्याज दर बढ़ने से कर्ज की दरें भी बढ़ गई हैं। इससे उन कंपनियों के कर्ज की लागत बढ़ गई है जिन्होंने अपनी परियोजनाओं के खर्च के लिए बैंकों से कर्ज लिया है। ऐसे में जब विकास की दर निरंतर धीमी होती जा रही हो तब ब्याज दरों की बढ़ोतरी ने विकास और निवेश में सुधार पर प्रतिकूल असर डाला है। जब ब्याज दरों में बढ़ोतरी से भी रुपये की गिरावट नहीं संभली तो सरकार और रिजर्व बैंक ने सोना-चांदी के आयात सहित पूंजी के प्रवाह पर कई प्रतिबंध लगा दिए। इनमें विदेशों में किए जाने वाले निवेश और लिबरलाइज्ड रेमिटेंस स्कीम (एलआरएस) पर पाबंदी शामिल है। इससे घरेलू कंपनियों द्वारा विदेशी निवेश और व्यक्तियों द्वारा धन बाहर भेजना और कठिन हो गया। प्रतिकूल नीतियों और वातावरण से जूझ रही कंपनियों पर इन प्रतिबंधों का विशेष रूप से नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। इन प्रतिबंधों की वजह से ही शेयर बाजार में गिरावट की स्थिति बनी हुई है। बाजार और निवेशकों में यह धारणा प्रबल हो गई है कि पिछले कुछ वर्षो में पूंजी खाते के उदारीकरण से संबंधित सुधारों को कभी भी हटाया जा सकता है। ऐसे माहौल में कोई भी विदेशी निवेशक देश में लंबी अवधि के निवेश से कतराएगा। इस स्थिति में सरकार और केंद्रीय बैंक के पास विवेकपूर्ण विकल्प यही है कि वे रुपये की गिरावट की रोकथाम के लिए उठाए गए कदमों को वापस ले ले। रुपये की लगातार कमजोरी से आतंकित होकर नीतियों में फेरबदल करना व्यर्थ है। कई उभरती अर्थव्यवस्थाओं की मुद्रा में गिरावट देखी जा रही है। भारतीय अर्थव्यवस्था पर अमेरिकी केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व द्वारा बांडों की खरीद में कमी के प्रस्ताव का असर ज्यादा है, क्योंकि हमारी अर्थव्यवस्था चरमराई हुई है। ऐसी स्थिति में विनिमय दर को बाजार की शक्तियों पर ही छोड़ देना विवेकपूर्ण विकल्प है।
सरकार को आर्थिक विकास दर, औद्योगिक उत्पादन और चालू खाते में निरंतर बढ़ते घाटे को रोकने वाली नीतियों पर जोर देना चाहिए। रुपये की गिरावट से हमारे निर्यात बढ़ेंगे और चालू खाते के बढ़ते हुए घाटे को कम करने में सहायता मिलेगी, जो इस समय देश की जीडीपी का 3.7 फीसद हो गया है। रुपये की गिरावट से विदेशी निवेशकों के लिए हमारी वित्तीय परिसंपत्तियां सस्ती होंगी और इससे उनकी मांग बढ़ेगी। राजकोषीय और मौद्रिक नीति को मिलाकर सरकार को ऐसे कदम उठाने चाहिए जिससे आर्थिक विकास की रफ्तार बढ़े। इसके साथ ऐसे कदम भी उठाए जाएं जिससे हमारे वित्तीय बाजारों में विदेशी निवेश की संभावनाएं बढ़े। ऐसा करने से देश की नीतियों की विश्वसनीयता बढ़ेगी।
(लेखिका नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी में माइक्रो फाइनेंस टीम की सलाहकार हैं)